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अणिमा सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला


अणिमा सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला


1. नूपुर के सुर मन्द रहे

नूपुर के सुर मन्द रहे,
जब न चरण स्वच्छन्द रहे।
उतरी नभ से निर्मल राका,
पहले जब तुमने हँस ताका
बहुविध प्राणों को झंकृत कर
बजे छन्द जो बन्द रहे।

नयनों के ही साथ फिरे वे
मेरे घेरे नहीं घिरे वे,
तुमसे चल तुममें ही पहुँचे
जितने रस आनन्द रहे।
(1941)

2. बादल छाये

बादल छाये,
ये मेरे अपने सपने
आँखों से निकले, मँडलाये।
बूँदें जितनी
चुनी अधखिली कलियाँ उतनी;
बूँदों की लड़ियों के इतने
हार तुम्हें मैंने पहनाये !
गरजे सावन के घन घिर घिर,
नाचे मोर बनों में फिर फिर
जितनी बार 
चढ़े मेरे भी तार
छन्द से तरह तरह तिर,
तुम्हें सुनाने को मैंने भी
नहीं कहीं कम गाने गाये।
(1941)

3. जन-जन के जीवन के सुन्दर

जन-जन के जीवन के सुन्दर
हे चरणों पर
भाव-वरण भर
दूँ तन-मन-धन न्योछावर कर।
दाग़-दग़ा की
आग लगा दी
तुमने जो जन-जन की, भड़की;
करूँ आरती मैं जल-जल कर।
गीत जगा जो 
गले लगा लो, हुआ ग़ैर जो, सहज सगा हो,
करे पार जो है अति दुस्तर।
(1939)

4. उन चरणों में मुझे दो शरण

इस जीवन को करो हे मरण।
बोलूँ अल्प, न करूँ जल्पना,
सत्य रहे, मिट जाय कल्पना,
मोह-निशा की स्नेह-गोद पर
सोये मेरा भरा जागरण।
आगे-पीछे दायें-बायें
जो आये थे वे हट जायें
उठे सृष्टि से दृष्टि, सहज मैं
करूँ लोक-आलोक-सन्तरण।
(1939)

5. सुन्दर हे, सुन्दर

सुन्दर हे, सुन्दर !
दर्शन से जीवन पर
बरसे अनिश्वर स्वर।
परसे ज्यों प्राण, 
फूट पड़ा सहज गान, 
तान-सुरसरिता बही
तुम्हारे मंगल-पद छू कर।
उठी है तरंग, 
बहा जीवन निस्संग,
चला तुमसे मिलन को
खिलने को फिर फिर भर भर।
(1939)

6. दलित जन पर करो करुणा

दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति अरुणा।
हरे तन-मन प्रीति पावन, 
मधुर हो मुख मनोभावन, 
सहज चितवन पर तरंगित
हो तुम्हारी किरण तरुणा
देख वैभव न हो नत सिर, 
समुद्धत मन सदा हो स्थिर,
पार कर जीवन निरन्तर
रहे बहती भक्ति-वरुणा।
(1939)

7. भाव जो छलके पदों पर

भाव जो छलके पदों पर, 
न हों हलके, न हों नश्वर।
चित्त चिर-निर्मल करे वह,
देह-मन शीतल करे वह, 
ताप सब मेरे हरे वह
नहा आई जो सरोवर।
गन्धवह हे, धूप मेरी।
हो तुम्हारी प्रिय चितेरी, 
आरती की सहज फेरी
रवि, न कम कर दे कहीं कर।
(1939)

8. धूलि में तुम मुझे भर दो

धूलि में तुम मुझे भर दो।
धूलि-धूसर जो हुए पर
उन्हीं के वर वरण कर दो
दूर हो अभिमान, संशय,
वर्ण-आश्रम-गत महामय,
जाति-जीवन हो निरामय
वह सदाशयता प्रखर दो।
फूल जो तुमने खिलाया, 
सदल क्षिति में ला मिलाया, 
मरण से जीवन दिलाया
सुकर जो वह मुझे वर दो।
(1940)

9. तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर

तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर,
जो द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर।
भूख अगर रोटी की ही मिटी,
भूख की जमीन न चौरस पिटी, 
और चाहता है वह कौर उठाना कोई
देखो, उसमें उसकी इच्छा कैसे रोई,
द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर-
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर।
देश का, समाज का
कर्णधार हो किसी जहाज का
पार करे कैसा भी सागर
फिर भी रहता है चलना उसे 
फिर भी रहता है पीछे डर;
चाहता वहाँ जाना वह भी
नहीं चलाना जहाँ जहाज, नहीं सागर, 
नहीं डूबने का भी जहाँ डर।
तुम्हें चाहता है वह, सुन्दर, 
जो द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर।
(1940)

10. मैं बैठा था पथ पर

मैं बैठा था पथ पर, 
तुम आये चढ़ रथ पर।
हँसे किरण फूट पड़ी,
टूटी जुड़ गई कड़ी, 
भूल गये पहर-घड़ी, 
आई इति अथ पर।
उतरे, बढ़ गही बाँह, 
पहले की पड़ी छाँह, 
शीतल हो गई देह, 
बीती अविकथ पर।
(1940)

11. मैं अकेला

मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।

पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला ।

जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला ।

12. स्नेह-निर्झर बह गया है

स्नेह-निर्झर बह गया है !
रेत ज्यों तन रह गया है ।

आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन दह गया है ।"

"दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है ।"

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है ।

13. सन्त कवि रविदास जी के प्रति

ज्ञान के आकार मुनीश्वर थे परम
धर्म के ध्वज, हुए उनमें अन्यतम,
पूज्य अग्रज भक्त कवियों के, प्रखर
कल्पना की किरण नीरज पर सुघर
पड़ी ज्यों अंगड़ाइयाँ लेकर खड़ी
हो गयी कविता कि आयी शुभ घड़ी
जाति की, देखा सभी ने मीचकर
दृग, तुम्हें श्रद्धा-सलिल से सींचकर।
रानियाँ अवरोध की घेरी हुईं
वाणियाँ ज्यों बनी जब चेरी हुईं
छुआ पारस भी नही तुम ने, रहे
कर्म के अभ्यास में, अविरत बहे
ज्ञान-गंगा में, समुज्ज्वल चर्मकार,
चरण छूकर कर रहा मैं नमस्कार।

(रचनाकाल : 1942 ई.) 

   

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