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परमात्मा का कुत्ता - मोहन राकेश / parmatma ka kutta | साहित्य समुद्रम

परमात्मा का कुत्ता मोहन राकेश जी की कहानियों में से एक है। परमात्मा का कुत्ता मोहन राकेश बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी डालकर बैठा अर्ज़ीनवीस धड़ाधड़ अर्ज़ियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था, लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफ़ेद दाढिय़ों वाले दो-तीन लम्बे-ऊँचे जाट, अपनी लाठियों पर झुके हुए, उसके खाली होने का इन्तज़ार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्ज़ीनवीस ने जो टाट का परदा लगा रखा था, वह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लडक़ा अँग्रेज़ी प्राइमर को रट्‌टा लगा रहा था-सी ए टी कैट-कैट माने बिल्ली; बी ए टी बैट-बैट माने बल्ला; एफ ए टी फैट-फैट माने मोटा...। कमीज़ों के आधे बटन खोले और बगल में फ़ाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेडख़ानी करते, रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब...

सुजानहित घनानंद

सुजानहित  घनानंद 1. अंतर हौं किधौ अंत रहौ अंतर हौं किधौ अंत रहौ दृग फारि फिरौकि अभागनि भीरौं। आगि जरौं अकि पानी परौं अब कैसी करौं हिय का विधि धीरौं। जौ धन आनंद ऐसी रुची तौ कहा बस हैं अहो प्राननि पीरौं। पाऊं कहां हरि हाय तुम्हें, धरती में धसौं कि अकासहि चीरौं। 2. ईछन तीछन बान बरवान सों ईछन तीछन बान बरवान सों पैनी दसान लै सान चढ़ावत प्राननि प्यासे, भरे अति पानिप, मायल घायल चोंप, चढ़ावत। यौं घनआनंद छावत भावत जान सजीवन ओरे ते आंवत। लोग हैं लागि कवित्त बनावत मोहितो मेरे कवित्त बनावत। 3. कहियै काहि जलाय हाय जो मो मधि बीतै कहियै काहि जलाय हाय जो मो मधि बीतै। जरनि बुझै दुख जाल धकौं, निसि बासर ही तैं। दुसह सुजान वियोग बसौं के संजोग नित। बहरि परै नहिं समै गमै जियरा जितको तित। अहो दई रचना निरखि रीझि खीझि मुरझैं सुमन। ऐसी विरचि विरचिको कहा सरयौ आनंद धन। 4. बहुत दिनानके अवधि आस-पास परे बहुत दिनानके अवधि आस-पास परे खरे अरवरनि भरे हैं उठि जान को कहि कहि आवन संदेसौ मन भावन को गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को झूठी बतियानि की पत्यानि तै उदास ह्वै कें अब न धिरत घन आ...

ठेस फणीश्वरनाथ रेणु

ठेस  फणीश्वरनाथ रेणु खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुला कर? दूसरे मजदूर खेत पहुँच कर एक-तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा - पगडंडी पर तौल तौल कर पाँव रखता हुआ, धीरे-धीरे। मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात है।  ...आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई। एक समय था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े-बड़े बाबू लोगो की सवारियाँ बँधी रहती थीं। उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे। '...अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गई है सारे इलाके मे। एक दिन भी समय निकाल कर चलो।  कल बड़े भैया की चिट्ठी आई है शहर से - सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवा कर भेज दो।'  मुझे याद है... मेरी माँ जब कभी सिरचन को बुलाने के लिए कहती, मैं पहले ही पूछ लेता, 'भोग क्या क्या लगेगा?'  माँ हँस कर कहती, 'जा-जा, बेचारा मेरे काम में पूजा-भोग की बात नहीं उठा...