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परमात्मा का कुत्ता - मोहन राकेश / parmatma ka kutta | साहित्य समुद्रम

परमात्मा का कुत्ता मोहन राकेश जी की कहानियों में से एक है। परमात्मा का कुत्ता मोहन राकेश बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था, और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी डालकर बैठा अर्ज़ीनवीस धड़ाधड़ अर्ज़ियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था, लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफ़ेद दाढिय़ों वाले दो-तीन लम्बे-ऊँचे जाट, अपनी लाठियों पर झुके हुए, उसके खाली होने का इन्तज़ार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्ज़ीनवीस ने जो टाट का परदा लगा रखा था, वह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लडक़ा अँग्रेज़ी प्राइमर को रट्‌टा लगा रहा था-सी ए टी कैट-कैट माने बिल्ली; बी ए टी बैट-बैट माने बल्ला; एफ ए टी फैट-फैट माने मोटा...। कमीज़ों के आधे बटन खोले और बगल में फ़ाइलें दबाए कुछ बाबू एक-दूसरे से छेडख़ानी करते, रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब...

गीतांजलि रवीन्द्रनाथ ठाकुर 

गीतांजलि  रवीन्द्रनाथ ठाकुर  अनुवाद डॉ. डोमन साहु 'समीर' मेरा माथा नत कर दो तुम (आमार माथा नत क’रे दाव तोमार चरण धूलार त’ ले) मेरा माथा नत कर दो तुम अपनी चरण-धूलि-तल में; मेरा सारा अहंकार दो डुबो-चक्षुओं के जल में। गौरव-मंडित होने में नित मैंने निज अपमान किया है; घिरा रहा अपने में केवल मैं तो अविरल पल-पल में। मेरा सारा अहंकार दो डुबो चक्षुओं के जल में।। अपना करूँ प्रचार नहीं मैं, खुद अपने ही कर्मों से; करो पूर्ण तुम अपनी इच्छा मेरी जीवन-चर्या से। चाहूँ तुमसे चरम शान्ति मैं, परम कान्ति निज प्राणों में; रखे आड़ में मुझको आओ, हृदय-पद्म-दल में। मेरा सारा अहंकार दो। डुबो चक्षुओं के जल में।। विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी (आमि बहु वासनाय प्राणपणे चाइ...) विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी वंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी; संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में। अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको, आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे, बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही, अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके। ...

सुजानहित घनानंद

सुजानहित  घनानंद 1. अंतर हौं किधौ अंत रहौ अंतर हौं किधौ अंत रहौ दृग फारि फिरौकि अभागनि भीरौं। आगि जरौं अकि पानी परौं अब कैसी करौं हिय का विधि धीरौं। जौ धन आनंद ऐसी रुची तौ कहा बस हैं अहो प्राननि पीरौं। पाऊं कहां हरि हाय तुम्हें, धरती में धसौं कि अकासहि चीरौं। 2. ईछन तीछन बान बरवान सों ईछन तीछन बान बरवान सों पैनी दसान लै सान चढ़ावत प्राननि प्यासे, भरे अति पानिप, मायल घायल चोंप, चढ़ावत। यौं घनआनंद छावत भावत जान सजीवन ओरे ते आंवत। लोग हैं लागि कवित्त बनावत मोहितो मेरे कवित्त बनावत। 3. कहियै काहि जलाय हाय जो मो मधि बीतै कहियै काहि जलाय हाय जो मो मधि बीतै। जरनि बुझै दुख जाल धकौं, निसि बासर ही तैं। दुसह सुजान वियोग बसौं के संजोग नित। बहरि परै नहिं समै गमै जियरा जितको तित। अहो दई रचना निरखि रीझि खीझि मुरझैं सुमन। ऐसी विरचि विरचिको कहा सरयौ आनंद धन। 4. बहुत दिनानके अवधि आस-पास परे बहुत दिनानके अवधि आस-पास परे खरे अरवरनि भरे हैं उठि जान को कहि कहि आवन संदेसौ मन भावन को गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को झूठी बतियानि की पत्यानि तै उदास ह्वै कें अब न धिरत घन आ...