सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गुरुकुल मैथिलीशरण गुप्त

गुरुकुल मैथिलीशरण गुप्त 1. गुरु नानक मिल सकता है किसी जाति को आत्मबोध से ही चैतन्य ; नानक-सा उद्बोधक पाकर हुआ पंचनद पुनरपि धन्य । साधे सिख गुरुओं ने अपने दोनों लोक सहज-सज्ञान; वर्त्तमान के साथ सुधी जन करते हैं भावी का ध्यान । हुआ उचित ही वेदीकुल में प्रथम प्रतिष्टित गुरु का वंश; निश्चय नानक में विशेष था उसी अकाल पुरुष का अंश; सार्थक था 'कल्याण' जनक वह, हुआ तभी तो यह गुरुलाभ; 'तृप्ता' हुई वस्तुत: जननी पाकर ऐसा धन अमिताभ । पन्द्रहसौ छब्बीस विक्रमी संवत् का वह कातिक मास, जन्म समय है गुरु नानक का,- जो है प्रकृत परिष्कृति-वास । जन-तनु-तृप्ति-हेतु धरती ने दिया इक्षुरस युत बहु धान्य; मनस्तृप्ति कर सुत माता ने प्रकट किया यह विदित वदान्य । पाने लगा निरन्तर वय के साथ बोध भी वह मतिमंत; संवेदन आरंभ और है आतम-निवेदन जिसका अन्त । आत्मबोध पाकर नानक को रहता कैसे पर का भान ? तृप्ति लाभ करते वे बहुधा देकर सन्त जनों को दान । खेत चरे जाते थे उनके, गाते थे वे हर्ष समेत- "भर भर पेट चुगो री चिड़ियो, हरि की चिड़ियां, हरि के खेत !'' वे गृह...

पंचवटी मैथिलीशरण गुप्त

Panchvati Maithilisharan Gupt पंचवटी मैथिलीशरण गुप्त पंचवटी पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को, चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को। उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?" विनत वदन से उत्तर पाया—"तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥" सीता बोलीं कि "ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले, पर देवर, तुम त्यागी बनकर, क्यों घर से मुँह मोड़ चले?" उत्तर मिला कि, "आर्य्ये, बरबस, बना न दो मुझको त्यागी, आर्य-चरण-सेवा में समझो, मुझको भी अपना भागी॥" "क्या कर्तव्य यही है भाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया, "आर्य, आपके प्रति इन जन ने, कब कब क्या कर्तव्य किया?" "प्यार किया है तुमने केवल!" सीता यह कह मुसकाईं, किन्तु राम की उज्जवल आँखें, सफल सीप-सी भर आईं॥ चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में, स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में। पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से, मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥ पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना, जि...

सांध्यगीत महादेवी वर्मा

Sandhyageet Mahadevi Verma सांध्यगीत महादेवी वर्मा 1. प्रिय! सान्ध्य गगन प्रिय ! सान्ध्य गगन मेरा जीवन! यह क्षितिज बना धुँधला विराग, नव अरुण अरुण मेरा सुहाग, छाया सी काया वीतराग, सुधिभीने स्वप्न रँगीले घन! साधों का आज सुनहलापन, घिरता विषाद का तिमिर सघन, सन्ध्या का नभ से मूक मिलन, यह अश्रुमती हँसती चितवन! लाता भर श्वासों का समीर, जग से स्मृतियों का गन्ध धीर, सुरभित हैं जीवन-मृत्यु-तीर, रोमों में पुलकित कैरव-वन! अब आदि अन्त दोनों मिलते, रजनी-दिन-परिणय से खिलते, आँसू मिस हिम के कण ढुलते, ध्रुव आज बना स्मृति का चल क्षण! इच्छाओं के सोने से शर, किरणों से द्रुत झीने सुन्दर, सूने असीम नभ में चुभकर- बन बन आते नक्षत्र-सुमन! घर आज चले सुख-दु:ख विहग! तम पोंछ रहा मेरा अग जग; छिप आज चला वह चित्रित मग, उतरो अब पलकों में पाहुन! 2. प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती! श्वासों में सपने कर गुम्फित, बन्दनवार वेदना- चर्चित, भर दुख से जीवन का घट नित, मूक क्षणों में मधुर भरुंगी भारती! दृग मेरे यह दीपक झिलमिल, भर आँसू का स्नेह र...